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कांग्रेस का घोषणा पत्रः छलावा साबित होता पंचायतों के लिये प्रशासनिक शक्तियों के विकेंद्रीकरण का वादा

Ranchi: प्रदेश कांग्रेस अपने घोषणा पत्र को अमल करने में अब और तेजी दिखाने को है. पार्टी लीडर राहुल गांधी से मिले टास्क के बाद उसने इस दिशा में अपनी रफ्तार तेज की है. ग्रामीण विकास और पंचायती राज विभाग पार्टी के ही पास है. आलमगीर आलम इसकी बागडोर संभाल रहे हैं. पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में पंचायती राज संस्थाओं को और अधिक मजबूत और प्रभावशाली बनाने का वादा किया था. उसे प्रशासनिक और वित्तीय शक्तियां देकर उसके विकेंद्रीकरण की बात की थी पर हकीकत उलट है.

पंचायत चुनाव पिछले दो सालों से नहीं हो पा रहे हैं. दिसंबर 2010 में ही पंचायतों की मियाद पूरी हो गयी थी. इसके बाद 2021 में दो-दो बार घोषणाओं के बावजूद चुनाव नहीं हो सके. कार्यकारी समिति के जरिये काम चलाया जा रहा. 13वें वित्त से पंचायतों (त्रिस्तरीय) को पैसे मिले थे. 14वें में केवल पंचायतों के लिये पैसे रिलीज हुए थे. अब 15वें में एक बार फिर नगर पंचायतों, पंचायत समिति और पंचायतों के लिये पैसे आवंटित किये गये हैं. पर प्रशासनिक शक्तियां अब भी पंचायतों को नहीं मिल सकी हैं. ऐसा होने पर पंचायतें (त्रिस्तरीय) और भी प्रभावी तरीके से गांव से लेकर शहरों के विकास का खाका खींच पातीं. कुल मिलाकर पूर्ववर्ती स्थिति ही बने होने से पंचायतों में निराशा है.

रोजगार सृजन के दावे खोखले

झारखंड प्रदेश मुखिया संघ के महासचिव अजय कुमार सिंह के मुताबिक गांव के लोगों के लिये रोजगार सृजन और स्थायी आय सुनिश्चित किये जाने को जो वादे कांग्रेस की ओर से हुए हैं, वे भ्रामक हैं. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है. गांवों में इंटरनेट कनेक्टिविटी तय किये जाने की बात भी खोखली है. भारतनेट के तहत केबल बिछाये गये हैं जो हाथी के दांत ही साबित हुए हैं. हर जिले में एक पुस्तकालय की स्थापना का वादा भी धरातल पर नहीं उतरा है.

आवास का अधिकार कानून भी हवा हवाई है. राज्य सरकार के स्तर से ऐसी कोई पहल नहीं है. जिनके पास घर के लिये जमीन नहीं, उन्हें जमीन और पैसे देने की बात भी सरासर गलत है. गांवों में पर्याप्त बुनियादी ढांचा विकसित किये जाने की बात भी सतही है. राजस्व संबंधी सभी कानूनों की समीक्षा की बात थी. सबसे अधिक विवाद इसी मसले पर राज्यभर में पंचायत से लेकर शहर तक है. यह प्रक्रिया जटिल ही बनी हुई है.

पेमेंट भुगतान की समस्या बरकरार

झारखंड राज्य मनरेगा कर्मचारी संघ के उपाध्यक्ष महेश सोरेन कहते हैं कि मनरेगा कार्यक्रम की समीक्षा कर स्थायी प्रकृति के कार्यों को आगे बढ़ाने की बात अभी कागजी ही है. ठोस आइडिया डेवलप नहीं हो पाया है. मनरेगा मजदूरी में भुगतान का मसला अब भी बना हुआ है. तीन-चार माह से 6 लाख से अधिक मजदूरों को पेमेंट नहीं किया गया है. सोशल ऑडिट में 54 करोड़ की गड़बड़ी के नाम पर श्रमिकों का पेमेंट केंद्र से रोका जाना ठीक नहीं. मनरेगा से संबंधित कई तरह के बकाये का भुगतान का मसला भी तीन माह से फंसा हुआ है.

मजदूरी दर अब 194 की बजाये 225 रुपये की दर पर होने लगा है. हालांकि समय पर भुगतान सवाल है. वैसे सरकार के दूसरे कार्यक्रमों में न्यूनतम मजदूरी दर 300 रुपये से अधिक है. ऐसा होने पर मनरेगा में श्रमिकों का और रूझान बढ़ सकता है. मनरेगा कर्मियों को 2013 के ही आधार पर वेतन रिलीज किया जाता है. 2016 में 500 रुपये तक की वृद्धि हुई थी. अब एक बार फिर इसमें बढ़ोत्तरी की प्रक्रिया जारी होने की सूचना है.कृषि क्षेत्र से संबंधित गतिविधियों को मनरेगा कार्य के साथ जोड़े जाने की दिशा में जरूर महत्वपूर्ण काम हुए हैं. दीदी बाड़ी योजना के जरिये सखी मंडल की दीदीयां सब्जियां उगा रही हैं और आत्मनिर्भर हो रही हैं. बिरसा हरित ग्राम योजना शुरू की गयी है. इसमें 1 एकड़ में 112 आम के पौधे लगाये जाते हैं. सागवान के भी पेड़ लगाये जा रहे हैं.

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